जब भारत में अंग्रेजों का राज था तो उस दौरान अंग्रेज अधिकारियों ने कई भारतीय किसानों को खाद्यान्न फसलों की जगह पर नील की खेती करने के लिए मजबूर किया. इसके बाद ब्रिटिश राज ने इस रंग को गलत तौर-तरीकों से कम कीमतों पर खरीद लिया गया.
नील की खेती के साथ एक बड़ी समस्या थी कि इसकी लगातार खेती करने पर जमीन बंजर हो जाती थी. अंग्रेज भी इसी वजह से अपने देश को छोड़कर भारत में किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे,क्योंकि यहां की जमीन काफी उपजाऊ रही है.
आजादी से पहले नील की खेती मुख्य तौर पर बंगाल और बिहार में होती थी. नील, जूट, चाय और बाकी नकदी फसलों के बहुत ज्यादा उत्पादन की वजह से सन् 1859 में नील सत्याग्रह हुआ था. आज, नील की खेती उत्तराखंड, तमिलनाडु और तिब्बती पठार में भी की जाती है.
खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक नीले रंग की डिमांड बढ़ रही है. देश-विदेश में नीले रंग की डाई का प्रयोग किया जाता है. ऐसे में अब भारतीय किसानों की रूचि भी नैचुरल नीले रंग के लिए नील की खेती में बढ़ती जा रही है.
नील की खेती करने पर बहुत ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत होती है. यही वजह है कि पुराने समय में लगातार नील की खेती करने पर जमीन बंजर हो जाया करती थी. वहीं आज मॉर्डन टेक्नोलॉजी की वजह से यह खेती किसानों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो रही है.