फरवरी के महीने में आया साल 2025 का आम बजट को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भले ही पूरे नंबर दिए हो लेकिन महाराष्ट्र में कपास के किसान इससे निराश हैं. किसानों ने इस बजट पर अपना असंतोष जताया. महाराष्ट्र जो कपास की खेती के लिए मशहूर है, वहां पर कपास के किसान बजट से खासे निराश हैं. वित्त मंत्री की तरफ से 500 करोड़ रुपये नेशनल कॉटन टेक्नोलॉजी मिशन के लिए दिए गए हैं. जहां टेक्सटाइल इंडस्ट्री ने इस फैसले का स्वागत किया है तो वहीं किसान, एक्टिविस्ट्स और विशेषज्ञ इससे असंतुष्ट हैं.
बजट में मिली राशि कम
अखबार द हिंदू के अुनसार टेक्सटाइल इंडस्ट्री का मानना है कि इस ऐलान से कपास का उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी. वहीं कपास किसान चाहते हैं कि टेक्नोलॉजी में बड़े बदलाव हों. साथ ही सरकार उत्पादकता में गिरावट की समस्या का दूर करने के लिए बजट में जो राशि आवंटित की गई, उसमें इजाफा करे.
पिछले एक दशक में कपास की पैदावार में गिरावट दर्ज की गई है. यूनाइटेड स्टेट्स फॉरेन एग्रीकल्चरल सर्विस के आंकड़ों के अनुसार, साल 2024-25 में कपास की पैदावार 461 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी. यह साल 2014-15 में 502 किलोग्राम उत्पादन से से 8 फीसदी कम है.
महाराष्ट्र के सीनियर कॉटन टेक्नोलॉजिस्ट जीएच वैराले के हवाले से अखबार ने बताया है कि कपड़ा क्षेत्र से कपास की वर्तमान मांग करीब 350 लाख गांठ है, लेकिन उत्पादन करीब 300 लाख गांठ है. किसान और विशेषज्ञ कम उत्पादकता के लिए नए बीजों और खेती के नए तरीकों की कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं. किसानों की मानें तो आजादी के बाद से ही उसी पुरानी पद्धति से कपास की खेती होती आ रही है.
कपास के उत्पादन में कमी
भारत में कपास की खेती करने वाले किसान पिछले दो दशकों से बोलगार्ड-2 किस्म का कपास इस्तेमाल कर रहे हैं. किसानों की मानें तो इस किस्म ने पहले कुछ सालों में अच्छी पैदावार दी, लेकिन हाल के सालों में इसमें गिरावट आने लगी है. बॉलवर्म अभी भी कपास के पौधे पर हमला करते हैं. इससे औसतन 30 से 40 फीसदी फसल को नुकसान पहुंचता है. भारत में जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी ने अभी तक बोलगार्ड-3 किस्म के इस्तेमाल को मंजूरी नहीं दी है.
खेती का तरीका पुराना
वहीं खेती का तरीका भी एक समस्या बना हुआ है. कुछ किसान अपने खेत में कपास, सोयाबीन और लाल चना उगाते हैं. इसके लिए वो हाई डेंसिटी प्लांटिंग सिस्टम को अपनाते हैं. इस विधि से उन्हें बाकी किसानों की तुलना में अधिक उपज भी मिलती है. साथ ही उन्होंने कपास चुनने के लिए मशीनों का प्रयोग करने का भी प्रयास किया. वहीं बाकी किसान ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि यह तरीका बहुत महंगा है. किसानों की मानें तो इस विधि को लाने के लिए मौजूदा 500 करोड़ रुपये की राशि कम है और इससे ज्यादा की जरूरत है. कुछ किसानों का कहना है कि यह रकम दोगुनी होनी चाहिए, तभी जाकर कुछ हो सकता है.
अभी आएगी और गिरावट!
विशेषज्ञों के अनुसार खेतों पर काम करने वाले लोगों की औसत आयु 50 से 60 वर्ष है. उनके बच्चे पहले ही ग्रेजुएट हो चुके हैं. वो खेती छोड़ चुके हैं और रोजगार की तलाश में बाहर चले गए हैं. ऐसे में मजदूरों की कमी की वजह से मशीनों से खेती करनी पड़ रही है. वहीं कुछ किसान दूसरी फसलों की तरफ चले गए हैं तो कुछ ने तो कपास की खेती तक छोड़ दी है. अधिक आवंटन और आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने की कोशिशों में कमी की वजह से कपास की खेती में और गिरावट आ सकती है.
किसानों को नही मिल रही एमएसपी
वहीं किसान और एक्सपर्ट्स कपास टेक्नोलॉजी मिशन में ज्यादा आवंटन की उम्मीद कर रहे थे. विशेषज्ञों का कहना है कि जो आवंटन किया गया है,उसका मकसद कपास क्षेत्र की समस्याओं को छिपाना है. इन समस्याओं पर पहले से ही अच्छी तरह से चर्चा की जा चुकी है और ये लंबे समय से चली आ रही हैं.
लाभकारी मूल्य, इनपुट लागत में कमी, प्रभावी फसल बीमा कवर और बैंक ऋण नीति में कृषि को प्राथमिकता जैसी समस्याएं आज भी कायम हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि आज 90 फीसदी से ज्यादा कपास उत्पादक केंद्र सरकार की तरफ से घोषित एमएसपी का फायदा तक भी नहीं उठा पा रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि केंद्र सरकार या उसकी किसी भी एजेंसी द्वारा सीधे तौर पर कोई खरीद नहीं की जाती है.